दस कसूरबार को छोड़ दीजिए मगर एक बेकसूर को सजा मत दीजिए परंतु कौन सुनेगा किसे सुनाऊँ? आदमी क्रोध के वशीभूत हो समाज में कुछ भी करने को बाध्य हो जाता है। वह यह नहीं अवलोकन कर पाता है कि हमारे क्रोध का असर खुद हम ही पर प्रतिक्रिया करेगा ? दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि क्रोध करने का अर्थ ही है दूसरों की गलतियों का स्वयं से प्रतिशोध लेना। इसी क्रम में हम खुद स्वयं की हानि कर बैठते हैं। हम अपनी गलतियों को स्वीकार नहीं कर पाते और उसे छिपाने के लिए दूसरों पर गलतियां मढ़ने लगते हैं। हम क्रोध के अधीनस्थ हो बेकसूर पर लांछन लगाने की भूल कर बैठते हैं और उसे दंडित कर बैठते हैं। नतीजतन हमारा जीवन दूभर हो जाता है। जिसदिन हम क्रोध के समय भी सकारात्मक सोच का आश्रय लेना शुरू कर देंगे उसीदिन हमारा जीवन सार्थक हो जायेगा।
।। श्री परमात्मने नमः।।
Thursday 5 April 2018
क्रोध
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