Tuesday 23 January 2018

निशान

टूटे हैं बार-बार जहाँ वादों के आइने,
उन स्वार्थों की बेरहम चट्टान आदमी !
दोस्ती में जो उतर गया है दुश्मनी का रंग,
अपनी ही उलझनों से परेशान आदमी !
वर्तमान के दोराहे पे चलने लगे हैं हम,
कीचड़ के ताल में धुला परिधान आदमी !
दोष किसे दूं ! ऐ जिंदगी मुझे खुद पे है भरम,
सब अपने हैं पर अपनों से अनजान आदमी !
अभीतक कहीं पे प्यार की खुशबू नहीं मिली,
इक वेश्या के अधरों की मुस्कान आदमी !
सुधरने की राह पर उजड़े हुए वतन को
गुलजार करने की प्रतीक्षा में परेशान आदमी !
प्रकृति हमसे कुछ कहती है अकेले में,
एक तरफा ही कर रहा युद्ध विराम आदमी !
वो बात आजतक भी मैं भूल नहीं पाया,
जो कर रहा अकेला, कितना महान आदमी !
काश हम जात-पात से बाहर आ पाएं !
मिल जाती राहत, छोड़ जाता निशान आदमी !
।। श्री परमात्मने नमः।।

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