हो गई है नाव जर्जर उफनती जलधार है,
हम समंदर बीच हैं और तीर पर पतवार है!
इस धरा पर भूख से व्याकुल मनुज साकार है,
हमने देखा भरे जल में आजकल अंगार है!
गली-गली से राजपथ तक फैलता अंधियार है,
भोग-लिप्सा ही तो केवल आजकल स्वीकार है!
स्वप्न में देखा गया है उजड़ता दरबार है,
सत्यान्वेषी मनुज भी, आजकल दो-चार हैं!
सत्य की बलिदान होती, जीना यहाँ बेकार है ;
पा जायेंगे हम लक्ष्य जिसदिन वही तो संसार है!
गणतंत्र के पावन दिवस नैया पड़ी मझधार है,
गणतंत्र की इस पीर से सबलोग शर्मसार हैं!
चौड़ी दरारों पर यहाँ अब उठ रही दीवार है,
कथनी-करनी में है अंतर कैसा कारोबार है ?
नैया है मझधार मालिक ! तीर पर पतवार है,
हे प्रभु! अब तो संभालो तेरा ही दरकार है !
।। श्री परमात्मने नमः।।
Monday 22 January 2018
जर्जर नाव
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