सूने-सूने बाग-बगीचे, सूना-सूना घर-आँगन
अँधियारे में राह ढूँढता, भटक रहा है पागल मन
अपने हित में सब जीते हैं,सबके अपने सपने हैं
कोई चाहे मान-प्रतिष्ठा, कोई चाहे दौलत-धन
इस दुनिया में मेरे भाई, नफ़रत है मक्कारी है
ढूंढ रहा हूँ बस्ती-बस्ती, मैं थोड़ा-सा अपनापन
मेरे आँगन में अंबर से आग बरसती है हर दिन
मैं क्या जानूं कैसी भादों,कैसा होता है सावन
हर इच्छा पूरी हो जाए, यह बिल्कुल नामुमकिन है
यह सच्चाई, टूट-टूटकर जान चुका है मेरा मन
।। श्री परमात्मने नमः।।
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