Friday 24 November 2017

मंतव्य

नमस्कार मित्रो !
                  आज मैं आपलोगों से कुछ अपना मंतव्य साझा करना चाहता हूँ। एक मित्र हमसे बीती रात में बार-बार याचना कर रहा था कि आप हमारे गुरु बन जाइए और बार-बार राजनेताओं का उदाहरण पेश कर रहा था। उसकी दिली इच्छा है कि समाज में समरसता का प्रादुर्भाव हो। रामचरितमानस में वर्णित है कि राम के शिष्य शिव थे और शिव के शिष्य राम थे। हमने उस मित्र से कहा कि परस्पर गुरु-शिष्य का संबंध स्वीकार करो तो हम तुम्हारा गुरु बन सकते हैं। उसने इनकार कर दिया। अब जहाँ समरसता का सवाल उठता है वहाँ हमें परस्पर समभाव तो रखना ही पड़ेगा भले ही सबमें अपना एक विशिष्ट गुण हो। यह भी बात दीगर है कि यदि किसी का अनुयायी ही बनना होता तो अलग-अलग सृष्टि की आवश्यकता नहीं होती। प्रत्येक में अपना-अपना एक विशिष्ट गुण होता है जो दूसरों में नहीं पाया जाता है फिर भी जबतक गुरु अपने को केवल गुरु ही समझता है और शिष्य अपने को केवल शिष्य ही समझता है तबतक दोनों का उद्धार असंभव है। परस्पर गुरु शिष्य भी है और शिष्य गुरु भी....। कहने का मतलब है कि हम जैसा बनना चाहते हैं वैसा ही हम दूसरों के साथ व्यवहार करें तो कल्याण संभव है। संप्रति अर्थ की लोलुपता ने समरसता का विलोपन कर दिया है। हम सभी उसी पथ के अनुगामी हैं। परिणामत: सामाजिक विषमता का प्रादुर्भाव परिलक्षित होना स्वाभाविक है। हमें बस इतना ही करना है कि विकसित होने के लिए हम भी दूसरों को विकसित करें। यह विचार मेरा अपना है। यह कोई जरूरी नहीं कि सभी हमारे विचार से सहमत हों।
।। श्री परमात्मने नमः।।

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