Thursday 1 June 2017

सच्चाई

सूने-सूने बाग-बगीचे, सूना-सूना घर आँगन
अँधियारे में राह ढूँढता, भटक रहा है पागल मन
अपने हित में सब जीते हैं,सबके अपने सपने हैं
कोई चाहे मान-प्रतिष्ठा, कोई चाहे दौलत-धन
इस दुनिया में मेरे भाई, नफरत है, मक्कारी है
ढूँढ रहा हूँ बस्ती-बस्ती, मैं थोड़ा-सा अपनापन
मेरे आँगन में अंबर से आग बरसती है हर दिन
मैं क्या जानूं कैसी भादो, कैसा होता है सावन
हर इच्छा पूरी हो जाए, है बिल्कुल नामुमकिन
यह सच्चाई, टूट-टूट कर जान चुका है मेरा मन
।। श्री परमात्मने नमः।।

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